देहरादून, 12 मई 2024: उत्तराखंड के खलंगा वन क्षेत्र में पेड़ों की कटाई का मुद्दा एक बार फिर से गरमा गया है। जलापूर्ति के लिए जलाशय निर्माण के नाम पर 2000 से अधिक पेड़ों को काटने की योजना का विरोध करते हुए सामाजिक, राजनीतिक और पर्यावरण संगठनों ने मोर्चा खोल दिया है।
विरोध प्रदर्शनकारियों का तर्क:
पर्यावरणीय नुकसान: पेड़ ऑक्सीजन प्रदान करते हैं, जलवायु को नियंत्रित करते हैं और मिट्टी के कटाव को रोकते हैं। इनकी कटाई से पर्यावरण को अपूरणीय क्षति होगी।
जैव विविधता का हनन: खलंगा वन क्षेत्र समृद्ध जैव विविधता वाला क्षेत्र है। पेड़ों की कटाई से अनेक वन्यजीवों का प्राकृतिक आवास नष्ट हो जाएगा।
विकल्पों की अनदेखी: जलापूर्ति के लिए अन्य विकल्प उपलब्ध हैं, जैसे कि वर्षा जल संचयन और भूमिगत जल का उपयोग।
स्थानीय लोगों की चिंता:
बाढ़ और सूखा: पेड़ों की कटाई से बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ सकता है।
रोजगार: वन क्षेत्र स्थानीय लोगों के लिए रोजगार का मुख्य स्रोत है। पेड़ों की कटाई से उनकी आजीविका पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।
विरोध प्रदर्शनकारियों की मांगें:
पेड़ों की कटाई पर रोक लगाई जाए।
जलापूर्ति के लिए पर्यावरण अनुकूल विकल्पों पर विचार किया जाए।
स्थानीय लोगों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाए।
सरकार का रुख:
सरकार का कहना है कि जलाशय निर्माण आवश्यक है और यह जल संकट को दूर करने में मदद करेगा। उन्होंने यह भी कहा कि पेड़ों की कटाई के बदले में नए पेड़ लगाए जाएंगे।
यह मामला उत्तराखंड में विकास और पर्यावरण के बीच टकराव का एक ज्वलंत उदाहरण है। यह देखा जाना बाकी है कि क्या सरकार प्रदर्शनकारियों की मांगों को मानती है या फिर योजना पर अमल करती है। इस मुद्दे पर बहस सोशल मीडिया पर भी जारी है, जिसमें लोग अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं।
उदाहरण:
पिछले साल, हिमाचल प्रदेश में भी इसी तरह के विरोध प्रदर्शन हुए थे जब सरकार ने एक हवाई अड्डे के निर्माण के लिए देवदार के पेड़ों को काटने की योजना बनाई थी।
2019 में, महाराष्ट्र में एक आदिवासी समुदाय ने पेड़ों की कटाई का विरोध किया था जो एक खनन परियोजना के लिए आवश्यक थी।
निष्कर्ष:
खलंगा वन क्षेत्र में पेड़ों की कटाई का मुद्दा केवल उत्तराखंड तक ही सीमित नहीं है। यह पूरे देश में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन खोजने की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
Shubham Kotnala