नई दिल्ली, 1 मई 2024: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू विवाह की सामाजिक-धार्मिक व्याख्या को लेकर महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने विवाह को केवल मनोरंजन या सामाजिक कार्यक्रम के रूप में नहीं, बल्कि पवित्र संस्कार और जीवन भर का बंधन माना है।
न्यायालय ने युवा पीढ़ी को विवाह के प्रति गंभीर होने और इसकी जिम्मेदारी को समझने का आग्रह किया है।
यह निर्णय कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डालता है, जिनमें शामिल हैं:
1. विवाह की पवित्रता:
न्यायालय ने विवाह को एक पवित्र संस्कार के रूप में परिभाषित किया है जो भारतीय समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
यह युवा पीढ़ी को विवाह के प्रति गंभीर होने और इसकी जिम्मेदारी को समझने के लिए प्रेरित करता है।
2. सामाजिक बुराइयों पर रोक:
न्यायालय ने विवाह को दहेज और अन्य सामाजिक बुराइयों से मुक्त करने पर जोर दिया है।
यह फैसला समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में मदद करेगा।
3. पारिवारिक मूल्यों का महत्व:
विवाह को एक पुरुष और एक महिला के बीच आजीवन बंधन और एक परिवार की नींव के रूप में देखा जाता है।
यह फैसला पारिवारिक मूल्यों और समाजिक ताने-बाने को मजबूत करेगा।
4. विवाह समारोहों का पालन:
न्यायालय ने विवाह समारोहों का धार्मिक परंपराओं के अनुसार ईमानदारी से पालन करने पर जोर दिया है।
यह फैसला हिंदू विवाह की पवित्रता and सांस्कृतिक महत्व को बनाए रखने में मदद करेगा।
5. विवाह की वैधता:
केवल पंजीकरण विवाह को मान्य नहीं बनाता है।
वास्तविक विवाह संपन्न न होने पर कोई वैध विवाह नहीं होगा।
यह फैसला विवाह की कानूनी स्थिति को स्पष्ट करता है और दुरुपयोग को रोकने में मदद करेगा।
उदाहरण:
न्यायालय ने यह स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण दिया कि कैसे कुछ जोड़े वैवाहिक स्थिति प्राप्त करने के लिए सुविधानुसार विवाह करते हैं। एक मामले में, एक जोड़े ने वीजा आवेदन के लिए हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 8 के तहत अपनी शादी का पंजीकरण कराया, लेकिन वास्तव में कोई विवाह समारोह नहीं हुआ।
न्यायालय ने इस तरह की प्रथाओं की निंदा की और यह स्पष्ट किया कि केवल पंजीकरण विवाह को मान्य नहीं बनाता है।
संदीप उपाध्याय