Puri Rath Yatra 2023 : आज से विश्व प्रसिद्ध ओड़िशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा शुरू हो गई है। हिंदू पंचांग के अनुसार हर वर्ष यह यात्रा आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि से शुरू होकर आषाढ़ शुक्ल की दशमी तक चलती है। इस दौरान भगवान जगन्नाथ के अलावा उनके बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा रथ पर सवार होकर जनता का हाल जानने निकलते हैं.
पुरी नगरी का भ्रमण करते हुए जनकपुर के गुण्डिचा मंदिर पहुंचते है. मान्यताओं के अनुसार यहां भगवान विश्राम करते हैं. रथयात्रा में सबसे आगे बड़े भाई, बीच में बहन और अंत में भगवान जगन्नाथ का रथ होता है. यह यात्रा पूरे भारत में एक पर्व की तरह मनाया जाता है. फिर इसके बाद वापस अपने पुरी के मंदिर में वापस लौट आते हैं। इस रथ को देखने के लिए और भगवान जगन्नाथ का आशीर्वाद पाने के लिए देश-दुनिया से भक्त बड़ी संख्या में पुरी आते हैं।
जगन्नाथ यात्रा का महत्व
यह यात्रा हर साल जगन्नाथ मंदिर के मुख्य द्वार से शुरू होती है और पूरी नगर में तीन महीने तक चलती है. दरअसल इस रथ के पीछे पौराणिक मान्यता है, जिसके अनुसार द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण से उनकी बहन सुभद्रा ने द्वारका देखने इच्छा को व्यक्त किया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी बहन की इस इच्छा को पूरा करने के लिए सुभद्रा और बलभद्र जी को रथ पर बैठाकर द्वारका की यात्रा करवाई थी। इस तरह से हर साल भगवान जगन्नाथ के संग बलभद्र और सुभद्रा की रथ यात्रा निकली जाती है। भक्ति और धार्मिक महत्व की दृष्टि से यह यात्रा बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है. इसमें लाखों भक्तों शामिल होते हैं. माना जाता है कि जो लोग भी सच्चे भाव से इस यात्रा में शमिल होते हैं, उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी होती है. इस यात्रा के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है. जगन्नाथजी की रथयात्रा में शामिल होने का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है.
क्यों होती है भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की अधूरी मूर्तियों की पूजा ?
भगवान की इस अधूरी मूर्ति के पीछे एक पौराणिक कथा है। दरअसल पुरी में एक राजा राज करते थे, जिनका नाम इंद्रद्युम्न था। एक रोज भगवान जगन्नाथ उनके सपने में प्रकट होते हुए समुद्र में बहती हुई लकड़ियों के बारे में बताया और आदेश दिया कि इन लकड़ियों से हमारी मूर्ति की रचना करो। तब राजा ने प्रभु की आज्ञा को मानते हुए समुद्र से बहती हुई लकड़ियों को एकत्रित करते हुए बढ़ई से मूर्ति बनाने को कहा। बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी राजा इंद्रदयुम्न के सामने शर्त रखी कि वे दरवाज़ा बंद करके मूर्ति बनाएंगे और जब तक मूर्तियां नहीं बन जातीं तब तक अंदर कोई प्रवेश नहीं करेगा। यदि दरवाज़ा पहले खुल गया तो वे मूर्ति बनाना छोड़ देंगे। बंद दरवाज़े के अंदर मूर्ति निर्माण का काम हो रहा है या नहीं, यह जानने के लिए राजा नित्यप्रति दरवाज़े के बाहर खड़े होकर मूर्ति बनने की आवाज़ सुनते थे। एक दिन राजा को अंदर से कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी,उनको लगा कि विश्वकर्मा काम छोड़कर चले गए हैं। राजा ने दरवाज़ा खोल दिया और शर्त अनुसार विश्वकर्मा वहां से गायब हो गए। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी ही रह गईं। उसी दिन से आज तक मूर्तियां इसी रूप में यहां विराजमान हैं।