होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। लेकिन होली के त्यौहार के साथ कई रोचक कथाएं जुडी हुई हैं
नई दिल्ली: होली मनाने के पीछे सबसे ज्यादा प्रचलित कथा है हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद की, यह माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था हिरण्यकश्यप अपने बल के अहंकार में स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी और वह सभी को अपनी पूजा करने को कहता था लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का उपासक भक्त था। हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रहलाद को बुलाकर राम का नाम न जपने को कहा तो प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा, पिताजी! परमात्मा ही समर्थ है। प्रत्येक कष्ट से परमात्मा ही बचा सकता है। मानव समर्थ नहीं है। यदि कोई भक्त साधना करके कुछ शक्ति परमात्मा से प्राप्त कर लेता है तो वह सामान्य व्यक्तियों में तो उत्तम हो जाता है, परंतु परमात्मा से उत्तम नहीं हो सकता।
प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकश्यप ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा. हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ जाए और होलिका प्रहलाद को गोदी में लेकर आग में बैठ गई लेकिन होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर का भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है.
श्रीकृष्ण और राधा: एक कथा कृष्ण और राधा से जुड़ी हुई है जो कि पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण सांवले रंग के थे और उनकी सखा राधा श्वेत वर्ण की थीं जिससे कृष्ण को हमेशा उनसे जलन होती थी और वह इसकी शिकायत अपनी माता यशोदा से करते थे. एक दिन यशोदा ने श्रीकृष्ण को यह सुझाव दिया कि वे राधा के मुख पर वही रंग लगा दें, जिसकी उन्हें इच्छा हो. बस फिर क्या था कृष्ण ने होली के दिन राधा को अपने मनचाहे रंग में रंग दिया. और कहा जाता है कि मथुरा में होली उसी दिन से मनाई जाती है और ब्रज की होली दुनिया की प्रचलित होली मानी जाती है.
कामदेव कथा: सतयुग में ही इसी दिन शिव ने कामदेव को भस्म करने के बाद रति तो श्रीकृष्ण के यहाँ कामदेव के जन्म होने का वरदान दिया था इसलिए होली को “वसंत महोत्सव” या “काम महोत्सव’ भी कहते हैं.
मंदिरों में अंगित होली: प्राचीन भारतीय मंदिरों की दीवारों पर होली उत्सव से सम्बंधित विभिन्न मूर्ति या चित्र अंकित पाए जाते हैं. ऐसा ही 16 वीं सदीं के एक मंदिर विजयनगर की राजधानी हम्पी में है. 16 शताब्दी के अहमदनगर के चित्रों और मेवाड़ के चित्रों में भी होली उत्सव का चित्रण मिलता है. सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में भी होली और दीवाली मनाए जाने के भी सबूत मिलते हैं.
आर्यों का होलका: प्राचीन का में होलाका के नाम से जाना जाता था और इस दिन आर्य नवात्रेष्टि यज्ञ करते थे. इस पर्व में होलका नामक अन्य से हवन करने के बाद उसका प्रसाद लेने की परंपरा रही है. होलका मतलब खेत में पड़ा हुआ वह अन्य जो आधा कच्चा और आधा पका हुआ होता है
संभवतः इसलिए इसका नाम होलिका उत्सव रखा गया होगा. प्राचीन काल से ही नई फसल का कुछ भाग पहले देवताओं को अर्पित किया जाता रहा है. इस तथ्य से यह पता चलता है कि ये त्यौहार वैदिक काल से ही मनाया जाता है फागुन शुक्ल पूर्णिमा को आर्य लोग जौ की बालियों की आहुति यज्ञ में देकर अग्निहोत्र का आरम्भ करते हैं, कर्मकांड में इसे यवग्रयण यज्ञ का नाम दिया गया है. बसंत में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है इसलिए होली के पर्व को ‘गावांतराम्भ’ भी कहा गया है. होली का आगमन इस बात का सूचक है कि अब चारों तरफ वसंत ऋतु का सुवास फैलने वाला है. जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र (लगभग 400-200 ईसा पूर्व) के अनुसार होली का प्राम्भिक शब्द होलाका था. जैमिनी का कथन है कि इसे सभी आर्यों द्वारा सम्पादित किया जाना चाहिए. ज्ञात रूप से ये त्यौहार 600 ईसा पूर्व से मनाया जाता रहा है.
राजा पृथु कथा: यह भी कहते हैं कि इसी दिन राजा पृथु ने राज्य के बच्चों को बचाने के लिए राक्षसी ढुंढी को लकड़ी जलाकर आग से मार दिया था.
रामगढ़ के अभिलेख: विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ के स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में इसका उल्लेख किया गया है. इससे ये सिद्ध होता है कि ये त्यौहार ईसा से 300 वर्ष पूर्व में भी मनाया जाता था.
अन्य ग्रंथो में उल्लेख: काठक गृह सूत्र और कथा गार्हामा-सूत्र में भी होली का वर्णन मिलता है. नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुरानों की प्राचीन हस्तलिपियां और ग्रंथो में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है. काठक ग्रह्म सूत्र के एक सूत्र की टीकाकार देवपाल ने इस प्रकार व्याख्या की है- होला कर्मविशेष: सौभाग्य स्त्रीणा प्रातरनुष्ठियता. तत्र होलाके राका देवता.अर्थात होला एक कर्म विशेष है, जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है. इसमें राका देवता हैं.
20 क्रीडाओं में एक होलाका: होलाका सम्पूर्ण भारत में प्रचलित 20 क्रीडाओं में एक हैं. वात्स्यायन के अनुसार लोग श्रंग (गाय की सींग) से एक-दूसरे पर रंग डालते हैं और सुगन्धित चूर्ण (अबीर-गुलाल) डालते हैं. लिंगपुराण में उल्लेख है कि फाल्गुन-पूर्णिमा को फाल्गुनिका कहा जाता है, यह बाल क्रीडाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति (ऐश्वर्य) देने वाली है. वराह पुराण में इसे पतवास-विलासनी कहा जाता है.